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मेरा कोई जन्म गांव नहीं है। जिस स्थान पर मेरा जन्म हुआ वह 'टांडा' कहलाता है। संक्षेप में, लमान बंजारा जनजाति समुदाय का टांडा! टांडा की पूरी व्यवस्था परंपरा से चलती है। यानी मुखिया-नायक के प्रशासन में चलने वाला नायक प्रधान तांडा ! तांडा प्रशासन में नायक का प्रमुख पात्र होता है ।
नायक जो कुछ कहता है उसे शांति से सुनना पडता है। बस इतना ही! इससे आगे कुछ नहीं! नायक का निर्णय गलत या आत्मघाती क्यों न हो.. कोई अपील नहीं होती थी। पूरे मामले में... ! ना कोई कानाफूसी या बड़बड़ाहट रहती थी!
नायक की उस मूढ़ परम्परा के ढाँचे में सारा टांडा ईश्वर-धर्म, पूजा, प्रसाद, मन्नतें और बिना फसली कृषि पर लिये ऋण के आधार पर जी रहा था और दिन बिता रहा था।
मेरे बचपन की यादें मेरी मां से ज्यादा मेरे पिता की हैं। हम अपने पिता को 'बा' कहकर बुलाते थे। निर्णायक काल में नायक की सहायता के लिए नायक के मनोनीत साथियों में 'बा' प्रमुख थे। वे किसी से डरे या किसी को ठेस पहुँचाए बिना सत्य को स्विकार करते रहते थे। हालाँकि, उस समय 'बा' की महान प्रतिष्ठा, साहूकार के पास थी जो टांडा को पैसा उधार देते थे, नायक की नज़र में 'बा' की यही असली योग्यता थी।
हमारा टांडा 80-85 झोपड़ियों से बसा हुआ था। एक-दो झोपड़ियों को छोड़कर, प्रत्येक झोपड़ी में हाथभट्टी से बनी शराब तयार की जाती थी। तांडा के लोग, जो दिन भर काम करने के बाद घर लौटते थे, तुरंत शराब पीना शुरू कर देते थे और उन्हें अपने पड़ोसियों से झगड़ा किए बिना राहत नहीं मिलती थी। एक बार जैसे ही उन्हें नशा चढ़ जाती थी तो बिना किसी कारण के अपने पड़ोसियों, महिलाओं और पुरुषों के साथ बहस किए बिना नहीं रह सकते थे। लेकिन पड़ोसियों में भी उनकी बात सुनने का संयम नहीं होता था। फिर वे एक-दूसरे को पत्थरों, लाठियों से मारते, या जो कुछ भी उनके हाथ में मिल जाता उसे मारना शुरू कर देते थे।
हम अपनी मां को कुछ बताये बिना झगड़े को देखने के लिए दौड़ पड़ते थे। यह जानने पर, मेरी माँ हमें लेने के लिए एक कोई को व्यक्ति को भेजती थी।
अगले दिन, झगड़ा में सम्मेलित लोग तांडा पंचायत में न्याय पाने की कोशिश किया करते थे।
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बंजारा बोली में इसे 'नसाब' कहा जाता है। नसाब में मेरे 'बा' को निश्चित तौर पर बुलाया जाता जाता था। 'बा' मुझे प्रशंसा से अपने साथ ले जाते थे।
सुबह दस-ग्यारह बजे शुरू हुई पंचायत दोपहर तीन-चार बजे तक चलती थी। उस समय हर झोंपड़ियाँ में हाथ भट्टी की शराब बनाई जाती थीं।
विवाद के एक पक्ष पर जुर्माना लगाया जाता था। जुर्माने के रूप में एकत्रित की गई धन से ताजी हाथ भट्टी की शराब नसाब में उपस्थित लोगों को बटोरा जाता था। बा खुद पीने से पहले मुझे एक-दो चुस्की देते थे। फिर खुद पीते थे। यहां तक कि जो लोग मेरे पिता का सम्मान करते थे, वे मुझे प्रशंसा के साथ थोडी थोडी शराब पिलाते थे। बाद में उन्होंने खुद शराब पी। यहां तक कि जो लोग मेरे पिता का आदर और सम्मान करते थे, वे भी प्रशंसा के साथ थोड़ी-थोडी शराब पीलाते थे। सभी शराब पीकर तर्र होते थे। हर कोई शराब का आदी था। किसी के पास उन्हें मना करने का कोई उपाय नहीं था, उन्हें यह भी नहीं पता था कि मना करना या नहीं... ऐसा हमेशा होता रहता था।
असल में दूध पीने की थी मेरी उम्र ! जब मैं स्कूल जाने लगा, तो पंचायत में जाना और पीने से परहेज किया। लेकिन जब बा घर पर रात के खाने के समय पीते थे तो वे मुझे जिद से पिलाया करते थे।
लेकिन चूंकि मैं बड़ी मंडली में बैठने लगा ओर मुझे समाज के छोटे बडो का एहसास होने लगा होगा। जबकि मैं कभी भी अपने साथियों के साथ खेलने नहीं गया। अगर कभी जाता तो मेरे पारी पर चढ़ जाती। और मुझे इससे नफरत होती थी।
लेकिन...टांडा में कुछ बच्चे बहुत शरारती थे।
वे मीठी बातें से मुझे मनाते थे। हम आपकी पारी खेलेंगे ऐसा कहकर कृत्रिम लालच में फंसाकर मुझे उनके साथ ले जाते थे। मुझ पर पारी झोडकर रूलाकर छोड़ देते थे।
यह ऐसा कुछ नहीं की जो रोज ऐसा होता था। तांडा के ज्यादातर बच्चे खेतों और जंगलों में जाया करते थे। वे बैलों और बकरियों को चराते थे। जब वे सब एक साथ आते, तो वे मारे गये केकड़ों, पकड़ी गई मछलियाँ, निकाला गया शहद की कहानियाँ सुनाते थे। ऐसी बातों जो जो उनके लिए आसान रहती थी इसका मुझे उनकी अद्भुत उपलब्धि लगती थी।
जैसे आज वे मेरे निरंतर भटकने पर महसूस करते हैं। एक बार की बात है, तांडा के आसपास के जंगल में काफी मधु कोष थे। जो कोई जंगल में जाता था आसानी से एक बाल्टी शहद लाया करता था। मुझे भी शहद लाने की लालच को मै रोख न सका। बा का गाँव जाने का अवसर देखकर मैं कुछ बच्चों के साथ जंगल में चला गया।
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उस समय हमे प्लास्टिक बैग का बडा आकर्षक था। प्लास्टिक बैग सह मिले कपडे महंगे और अच्छे होते है, इसपर हमारी अच्छी धारणा होती थी। कोई समझदार पिता प्लास्टिक बैग के साथ बहुत ही हल्का और सस्ता कपड़ा लाकर अपने बच्चों की खुशी को दुगनी करते थे। ऐसे समय में भले ही कपड़े पहनकर पहनकर फट गये हो, लेकिन हम प्लास्टिक की बैग को अपने पास सुरक्षित रखा जाता था। मेरे पास ऐसी ही एक बैग थी। कौन जाने और किस वजह से, जब मैं जंगल में गया तो मैंने उस प्लास्टिक की बैग को अपने साथ ले गया। जंगल में हमने एक सलाई के पेड़ पर बडा मधुकोश को देखा। देखकर हम सभी ने जोरसे चिल्लाया। लेकिन वास्तव में मुझे बेहद खुश हुई। उस समय हमें से एक ने कहा, "आब लेकिन मधुकोश को दिना को निकालना होगा" लेकिन सबी ने कहा, "दिना, मधुकोश को आपको ही निकालना है, हमने तुम्हें यह सिखाने के लिए ही तो जंगल में लाया है। प्लास्टिक की बैग से मुँह ढक दे, तब मक्खी के काटने का डर नहीं रहेगा।'' मैंने प्लास्टिक की बैग को अपने मुँह पर रख लिया और एक हाथ से जैसे ही मधुकोश को निकालना शूरू किया तो मधुमक्खीयां का झुंड रेंगकर सीधे प्लास्टिक की थैली में घुस गईं और प्लास्टिक की बैग में फंस गईं। मधुमक्खीयो ने एक झटके में मेरे चेहरे का तमाचा बना दिया। पेड़ पर मैं जोर जोर से चिल्ला पडा, ओ.. माँ..! ओ.. माँ..! और संकोचन की स्थिति में सबी बच्चे जमीन पर लुढ़क रहे थे।
कभी-कभी मेरे दिन आते थे। मेरी एक चपली नामकी चाची थी। मेरी चाची मुझे बहुत लाड़ किया करती थी। पिटाई करने वाले, हराने वाले, रूलानेवाले दोस्तों से ज्यादा लाड़-प्यार वाली चाची को कौन नहीं चाहता? खाना खाने के बाद मैं अपनी चाची की गोद में प्यार से चिपकता था। फिर चाची मुझे कहानियाँ सुनाती थी। पशु-पक्षी की चतुराई की, परी-चुड़ैल के चमत्कार की, राजकुमार के कौशल की! राजकुमारी के प्रेम की कहानियां!
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कहानी में सूनी गई अद्भुत दुनिया से में रोमांचित था, और चाची भी! कभी-कभी मैं कहता था कि मेरा भी दिन आएंगे। मैं अपनी चाची द्वारा कह गई कहानियाँ अन्य बच्चों को सुनाया करता था। वे दूसरों को सुनाते थे और कहते-कहते भूल जाते थे। सुनते-सुनते सबकी उत्सुकता जाग उठती थी। फिर किसी तरह मुझे कहानी सुनाने के लिए बुलाया जाता था। तो मैं उन्हें कहानियाँ सुनाया करता था।
कभी-कभी बच्चों में कलह होता था। कोई खेलना चाहते थे तो कोई कहानियाँ सुनना चाहते थे। गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय रहता था। गांव के आसपास अमराई में पेड़ों के निचे गायें बैठती थीं। जब हम वहां इकट्ठे होते तो हम सभी बच्चे एक साथ खेलने लगते थे। अच्छी-बुरी क्यों न हो..! कुछ कहानियाँ बच्चे सुनते थे।
बच्चे ज्यादा खेलते-खेलते थक जाते थे। मैं भी थक जाता था। फिर शुरू होता था नया खेल! सेक्स की जिज्ञासा से बच्चे गाय पर चढ़ जाते थे।
यह कामुकता का किस्सा कोई घर आकर दूसरे को बताता था। तब मां-बाप की गड़बड़ी हो जाती थी। जो कोई मिला उसकी पिटाई होती थी। बाकी बच्चे इधर-उधर भाग जाते थे।
'गाय हमारी माँ है', इस घोषणा को जब कोई सुनते होगें तो उस घटना को याद करनेवाले शायद मुस्कुराते होंगे ?
मैंने बचपन से गायों को लाड़-प्यार करते देखा है। लेकिन पता नहीं क्यों! मेरे बचपन का अनुभव है, दरवाजे पर भिख मांगनेवाले भिक्षु /साधुयों से लेकर खेतों से गुजरने वाले गणमान्य व्यक्तियों को, अपने भविष्य के संदर्भ में पूछताछ करना माँ का नित्य कार्यक्रम रहता था। अपने व्यवसाय में सक्षम ते वे लोग! मेरी माँ का भोलापन का एहसास होने में उन्हें कितना समय लगेगा? सफेद-काला रंग को न जाननेवाली माँ को वे राहू- केतु के नाम से डराकर पाच-दस किलो जवार से लूटकर माँ को फंसाते थे और खुद का पेट भरते थे। हालाँकि, वे लोग हमारे कल्याण और समृद्धि की गारंटी दिया करते थे। वर्तमान संकट को कम करने के लिए पूजा के लिए चार-छह रुपये से माँ से लुट लेते थे और इसलिए अलग-अलग दाँव-पेंच तयार करके वहीं, कुछ लोग सत्यनारायण की हर पूर्णिमा को पूजा करने के लिए कहते थे। और वर्तमान संकट को दूर करने के लिए पूजा के लिए चार-छह रुपये नकद मांगते थे। जबकि अन्य सोमवार को उपवास करने की सूचना देकर शाम को गायों को हरा चारा खिलाने के लिए कहते थे।
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गोसावी, जोगी, भटके, भिखारी, जो भी उपाय सुझाव देते थे, मां अंतर्गत मन से उसे अमल करती थी। माँ अब भी करती है। मै जब बच्चा था, मेरे तांडा मा प्रत्येक घर में बहुत सारी गायें थीं। घर-घर गायें की देखभाल की जाती थी। मैं यह आंखों से देखता था। मेरे घर में सौ से अधिक गायें थीं। कामधेनु के घर में रहते हुए भी मुझे टांडा में कोई खुश होता हुआ मुझे याद नहीं है। इसे विपरीत उनकी गरीबी का बोझ बढ़ता ही जा रहा था। हमारे एक पड़ोसी के पास हमसे ज्यादा गायें थीं। मुझे याद है, उसका नाम हांड्या था। उसकी दो पत्नियाँ और दो बेटियां थीं, लेकिन उसे कोई बेटा नहीं था। लड़कियों को छोड़कर उसके घर में सभी हातभट्टी शराब बनाते थे और सभी पीते थे। जब रात के खाने का समय होता तो लोग उसके घर आते जाते थे। खाना खत्म हुआ तो लोग उसके घर के सामने झगड़ा शुरू होने का इंतजार करते थे। वैसे तो यह परिवार सुखी था। उसे मदद के लिए किसी के पास नहीं जाना पड़ता था। स्वभाव से बहुत मीठा! वह किसी के झंझट में नहीं पडता था। फिर भी वह घर में बहस-झगडा करे बिना नहीं रहता। हातभट्टी की शराब पीली तो घर पर बहस किए बिना वह चैन महसूस नहीं करता था। अगर घर के लोगों से लाड़-प्यार करने लगा तो वह बाहर किसी से भी बहस-झगडा करता था। बेशक, उतरने के बाद जिस व्यक्ति के साथ झगड़ा करता था, उसके चरणों में गिरकर या माफी मांग कर घर आ जाता था। मुझे याद नहीं है की कभी उस पंचायत बैठी हो! ऐसा था वह झगड़ालू व्यक्ति! " शराब पीकर उसने लोगों से झगड़ा किया लेकिन कभी किसी जानवर से झगड़ा नहीं किया। वह अपनी गायों से बहुत प्यार करता था। वह वास्तव में वह गायों को भगवान मानता था। एक बार उसके गौशाला पशु चारा से भरी हुई थी। गायों को घर के सामने उसने बांध रखा था। उस समय जोरदार बारिश होने लगी। इतनी की मूसलाधार बारिश! गाय को देवता मानने वाला हांड्य हड़बड़ा कर उठा और खड़ा हो गया। उसने महिलाएं, बच्चों और बूढ़े माता-पिता को घर से बाहर निकाल लिया और घर को गायों से भर दिया। गाय को देवता मानने वाला यह शख्स निःसंतान था। लेकिन दर्द और बेहाल से उसका निधन हो गया और उनकी संपत्ति पर ... जाने दो!
तांडा-Eng
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इन सभी अनुभवों के बावजूद, भारत के प्राचीन से लेकर आधुनिक आचार्यो तक सभी गाय का गुणगान क्यों करते होंगे? आचार्य ही जानेंगे?
एक बार मैंने अपने परिचित शिक्षित व्यक्ती के सामने यह बात प्रस्तुत की। उसने कहा,"तुम लोग जिद्दी हो। मन की दुष्टता के कारण आप नहीं जानते कि गाय का दूध कितना पौष्टिक और गोबर कितना उपयोगी है ? यह विज्ञान सिद्ध सरल बात आप नहीं जानते हो।"
मैने कहा, "दूध तो माँ का अधिक पौष्टिक होता है और सभी जानवरों का गोबर खाद के रूप में उपयोगी है! इंसानों का भी! तो केवल यही कारण से गाय को माता के समान पूजनीय क्यों माना जाए? जबकी वह एक जानवर है ?
उसने कहा, "यह तुम्हारी जिद है!"
मैंने पुछा, "और आप जो कहते हो?
यह तो हमारा केवल हठ है, भावुक हठ!
"क्या हठ और क्या ज़िद ! यह सब आमोद है! नहीं?
लेकिन सत्यनारायण! ज्योतिषी कहते हैं कि इसे हर पूर्णिमा पर करें। मां उस दंडक का पालन करती थीं।
परसों मुझे एक ने सत्यनारायण की पूजा का प्रसाद लेने के लिए घर बुलाया। चार-पांच साल पहले शहर की बात! मैं बिना खाए उसके चल गया। पूजा हो गई। उस गृहस्थ ने प्रसाद हाथ में देते हुए कहा, "राठोड़जी, आप आ गए हो, थोडा चाय भी लेना चाहिए था, देखो कितनी जल्दबाजी हुई है। वह (पत्नी) कैसे जानेंगी ?"
मैं थोड़ा चौंक गया था। लेकिन ग्रामीणों से नाराज़ होने का क्या मतलब ? किसी न किसी तरह मैंने ने कहा, ''हां...हां! लेकिन चाय क्यों? प्रसाद तो ले लिया मैंने, और वहाँ से शीघ्र ही लौट आया।
सत्यनारायण की इस प्रकार की पूजा के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मेरे घर और तांडा में सत्यनारायण की पूजा की जाती थी। अभी भी पूजा की जाती है। लेकिन 25 किलो से कम। लेकिन मुझे याद नहीं है की मैंने कभी पूरन पोली का सत्यनारायण को देखा हो। मैं झूठ क्यों बोलूँगा?
किसान-कृषि मजदूर-मध्यम-अमीर-गरीब के यहाँ साल में कम से कम एक बार सत्यनारायण करने की प्रथा तांडा में है। गरीब से गरीब व्यक्ति को सत्यनारायण करने में 150 रुपये से भी ज्यादा का खर्च आता है।
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उसके बाद केवल प्रसाद लेकर। बिना चाय के सत्यनारायण करने वाता माता-पिता की नारायण की कई यादे मैंने अपनी माँ को बताई हैं। लेकिन वह इस पर विश्वास नहीं कर सकती थी। इसके विपरीत, "विकृत और बिगडा हुआ लडका" उसके दिमाग में मेरे बारे में रहीं यह छवि को अधिक मलिन करने में मदद करती है।
और मां मुझे सुधारने के लिए प्रार्थना करके और अधिक सत्यनारायण करने का संकल्प लेती थी।
उस अवांछित सत्यनारायण की मजाक बनाने का क्या मतलब है? लेकिन इस वजह से मैंने समाज की अज्ञानता को खंगर होते हुये देखकर, मेरे जीवन में उथल-पुथल मची हुई थी। एक ज़माने में हम भी ऐसा ही करने को निकले थे...आज मुझे अपने आप पर शर्मिंदगी महसूस हो रही है।
मेरे बचपन में घर आने वाले ब्राह्मण संस्कृत में सत्यनारायण की कथा सुनाया करते थे। कौन जाने यह आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत कष्टप्रदक हुआ की क्या? लेकिन सत्यनारायण की कथा मराठी छंद में सुनाई जाने लगी।
मैं एक असीम भक्तिमान बनता रहा! और टांडा में होने वाली हर पूजा में 'बा' को निमंत्रण दिया जाता था। और उनके साथ मुझे भी! बताने से समझने में देरी! मुझे जिनके घर बुलाया जाता था, वहाँ मैं पूजा-स्थल की सफाई, पूजा-अर्चना, फूलों की माला बनाना, तस्वीरें को माला चढ़ाना, दरवाजे को आम के तोरणों से सजाना आदि मेरे हक के काम हरते थे। मेरा साफ-सुथरा काम देखकर मुझे लाड़ प्यार मिलता था और मेरी तारीफ की जाती थी।
परिणामस्वरूप, मैंने सत्यनारायण की कहानी को इतनी बार सुनने से, जबकि मुझे अक्षरों की समझ नहीं थी तब भी मैं सत्यनारायण की कहानी/श्लोक को सहजता से आत्मसात कर पाया।
खैर, मारकर या जबरन मुसलमान बानाया जाता था वैसे ब्राह्मण बनने की कोई सुविधा नहीं थी। वरना वह कलंक न जाने कम उम्र में ही शुरू हो जाता! क्या पोथी का यह पुराण बढाना है ! आगे....!
47 की चहलपहल में एक मुस्लिम दंपती मेरे तांडा में रहने आये। शायद शरणार्थी बनकर आये हो। पता नहीं, 'बाबा' को दया आयीं हो या माँ को करूणा! तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था। लेकिन बाबा ने दंपति को रहने के लिए घर दिया था।
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जब मुझे समझ आ गई, वह आदमी मुझे याद है। बहुत लाड़ प्यार करता था मेरा! मुझे कहा करता था, "आत्मा , तेरी माँ देवी है देवी ! जब तेरी चाची अल्ला मिया को प्यारी हुई ना , तो उस अम्मा ने मुझे अपने बच्चे की तरह संभाला था!
बाद में वह अपनी जाति के साथ रहने के लिए पुसाद चले गया। जब मैं स्कूल में था तब मैं उनसे मिलता था। केला, बेर और पपीता बेचता था। मुझे खाने को देता था।
हाल ही में, मेरी माँ ने एक बार पूछा, " दिन्या, तुझे सेक्रीम भाई देखता क्या कभी ?"
मैंने कहा, "कैसे क्या दिखेगा 'या',? हम माँ को 'या' कहते हैं ! "वह तो मर चुका है?
"अरे, बेचारा, बहुत कष्ट उठाना पड़ा उसे!
नहीं, या उसे इतना भोगना नहीं पडा। सैक्रिम भाई मुसलमान था ना?"
"हां"
"तो फिर तुमने उसे अपने घर में कैसे रखा?"
" कैसे मतलब?"
"या, मेरा मतलब है, वह गाय नहीं खाता था ?"
खाता भी होगा! उसकी जातिभाई के साथ..। क्या उसने अपने घर पर ऐसा कुछ किया था?"
"नहीं! लेकिन, मुझे बताओ, कोई बुद्ध को मवेशी खाता है तो उसे कोई बर्तन नहीं देता और कोई अपनी थाली में खाना खाने नहीं देता, आपने तो अपनी थाली में एक मुसलमान को खाना कैसे दिया?"
"अरे दिना ! कहते की हम राजपूत कबीले के। हम शरण लेने वालों को मरने नहीं देते।"
"लेकिन चलो, कल कोई मांग जातीका आपकी शरण में आया, तो क्या तुम उसे थाली दोगे?"
" छे! कहाँ का मांग...कहाँ का महार... और कहाँ का मुसलमान ! छोड़ो, तु यह नहीं जान पायेगा। हमें वैसा ही करना चाहिए जैसे हमारे पूर्वजों ने हमे कहा है। "
"या, अगर पूर्वजों ने जो कहा वह गलत होगा तो?"
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"हाँ, ऐसा क्या, बड़े दिमाग वाला बन गया है तु?"
एक बार जब अखबार पढ़ते- पढ़ते मैंने अपनी मां से कहा कि सौ लोग मारे गए है। माँ रोने लगी। माँ ने कहा, "मरने वालों में कौन होगा? दिना, अगर बच्चे होंगे तो माता-पिता कितना रोते होंगे ? और अगर मेरे माता-पिता होगे तो बच्चों पर दुख का कितना बडा पहाड़ गिर गया होगा रे ? माँ का विलाप देखकर मेरी भी आंखों में पानी आ गया।
ऐसी थी मेरी माँ! मनुष्य के दुखों से द्रवित होती थी मां! आदमी और आदमी के बीच की दूरी भी जानती थी मां! केवल परंपरा के भ्रम के कारण...
तांडा में कितनी भी मौज मस्ती और आमोद क्यों न हो... लेकिन होली जैसा त्योहार एक आनंदपूर्ण उत्सव के तौर पर मनाए जाता है। दशहरा में बहुत सारे लोगों का जलसा होता था। घर-घर में बकरे काटे जाते थे। कर्जा लेक क्यों नहीं हो, लेकिन देवी-देवताओं की मन्नतें अदा की जाती थी।
हमारे तांडा के पास बडे पैमाने पर यात्रा का आयोजन होता था। इस तरह के अलग-अलग यात्रा होती थी। लेकिन वह मंदिर बड़ा पवित्र, प्रसिद्ध और प्राचीन कहा जाता था। पवित्र मंदिर के पुजारी भी खुद को पवित्र मानते हैं। नीम के फूलों की महक सुगंधित होने से, क्या नीम का फल मिठा होता है? लेकिन अगर मुझे तब समझा होता तो...
उस यात्रा जुलूस लोगों से खचाखच भरा हुआ था। पुजारी के हमारे ही उम्र के बच्चे थे। यात्रा के मुख्य दिन वे दो बच्चों को सजाया जाता था। उन्हें पीतांबर पहनाया जाता था। और शरीर पर आभूषण पहनायया जाता था। उनके गले में फूलों की माला हुआ करती थी। हाथों कलाई फूलों की माला भी बंधी हुई रहती थी। उनके सिर पर मोरपंखो की टोपी पहनाया जाती थी।
ऐसे अलंकृत बाल पुजारियों को पालकी के रथ पर खड़ा किया जाता था। तब उनके हाथों में धनुष-बाण दिए जाते थे, उन्हें राम-लक्ष्मण मानकर लोग रथ खींचते थे।
हम चलते रथ के चक्को के नीचे की मिट्टी को पवित्र अंगारा, विभूति, ऐसा सब कुछ मानकर माथे पर लगाते थे! खाते थे!
मुझे आज भी याद है, रथ के चक्को के नीचे रही मिट्टी जिसे हम पवित्र समझते थे, उस मिट्टी को पाने के लिए कई बार हमे खुद को रौंदना पडा। शोभा यात्रा में शामिल हुए रामलक्ष्मण फिर अपने हाथों से दहीहंडी के को फोड़ते थे।
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हजारों की संख्या में श्रद्धालु कण-कण प्रसाद बांट लेते थे।
जब हमने स्कूल जाना शुरू किया तो समझ में आया कि बौद्ध के बच्चे उन पुजारियों के राम लक्ष्मण बच्चों को अपने गोद में लेते थे। और फिर भी यात्रा के दिन, रथ के पहियों के नीचे की मिट्टी खाने के लिए वे प्रयास करते रहते थे। एक दिन की महिमा...
भ्रम का भय कितना भयानक होता है!
बचपन में मेरे घर में भैंसों की रखवाली करने के लिए एक नोकर था। नौकर अर्थात लडका। वह मेरी तरह आठ-नौ साल का था। उसका नाम था उत्तम।
पागलपन से मर गई अपनी माँ की पीड़ा को सहकर वह हमारे यहाँ काम पर लगा था। उसका पिता बहुत बूढ़ा था और भाई की कुत्ते जैसी उपर टांग! वास्तव में, तांडा में खासतौर पर हमारे घर नोकर को खाना अच्छा एवं पेटभर मिलता है और 'बा' के क्रोध को जानने के बावजूद वह हमारे यहाँ काम पर लगा था।
उत्तम हमें अच्छी कथाएँ सुनाया करता था।
केवल कथाएँ ही नहीं बल्कि बूढ़े आदमी की तरह, वह कई भ्रामक कथाएँ जानता था। उसके अपार ज्ञान से मैं बहुत खुश था।
एक बार मैंने खेत में एक सांप को मारा। फिर मैंने उत्तम को दिखाया। मुझे लगा कि वह मेरी प्रशंसा करेगा लेकिन उस नौजवान ने मुझसे कहा, "क्या, मालिक, तुम्हारा नाम आत्माराम, मेरा मतलब आपकी राशि मेष, एडका आपका वर्ण और मनुष्य गण!आप कोई सांप को नहीं मार सकते। सांप को मत मारो, अन्यथा आपकी तबाही हो जाएगी। "
अपना विनाश हो जायेगा यह सुनकर मैं बेहद परेशान हो गया। क्योंकि मेरे लिए यह एक सदमा था। अच्छा, वह मुझे यह कहकर रुका? नहीं... उसने साप मारने की हकीकत मां को बताया और अपनी खुद की जानकारी भी दी।
हां, या-माँ सीधे मेरे पास पहुँची और कहा, दिना, आज आपने सांप को मार डाला, इसके बाद कभी लाठी मत उठाना ? समझ गया? देवी के प्रकोप से बचपन में तेरे चाचा की मृत्यु हो गई। मुझे ज्योतिषी ने बताया था कि तेरे चाचा की मृत्यु सांप मारने की वजह से हुई। किसी दिन तेरा चाचाजी आ जायेगा.. तुझे देखने और मिलने.... नहीं तो और तु डालेगा पत्थर और उसे मारेगा? इसके अलावा उतम्या कहता हैं, पता है तेरी राशि क्या है? "
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हां, ठीक है। नहीं मारूंगा सांप को।
बस हो गया ? मैंने 'या' को अपने शब्द में समजाया। लेकिन खुद को समझने के लिए कई दिनों तक समझ में नहीं आया। जिस सांप को मैंने मारा है अगर वह मेरा चाचा होगा, तो मेरा कैसे होगा?"
लेकिन जब मैंने प्रत्यक्ष सांप दिखाई देता तो मैं सब कुछ भूलकर उसे मारने के लिए दौड़ता था। सांप को मार कर फेंक देता था। और फिर मैं सोचता था आज तक मारे गए सांपों में चाचा नहीं था। लेकिन आज के सांप में होगा तो.. अपना कुछ भी सच नहीं .. " और याद आते ही मै डर जाता था।
उत्तम एक आंख से अंधा था। उनकी कहानी भी एक बड़ी त्रासदी है।
दोनों स्वच्छ आंखों के साथ उत्तम का जन्म हुआ। तब उसकी माँ पागल नहीं थी। वह उत्तम की बहुत सराहना और लाड़-प्यार करती थी।
तीन-चार महीने का होगा उत्तम की एक आँखें आ गई। बच्चे की लाल और झिलमिलाती आँखों को देखकर माँ का रूह काँपने लगा। जो भी उसे मिलता था उसे आंखों के लिए कोई उपाय पुछती थी।
किसी ने माँ से कहाँ, "पोला त्यौहार को जिस रंग का उपयोग बैलों की रस्सियों को रंगने के लिए किया जाता है उस रंग को आँखों में डालेंगे तो आँखें अच्छी हो जाएंगी"
तो वह घर-घर जाकर रंग मांगने लगी। लेकिन रंग मतलब हातभट्टी नही थी। जैसे मुंह में मिल जायेगी। आखिरकार, बेचारी ने कुछ पैसे उधार लिए और उत्तम को घर पर रखकर रंग लाने के लिए पुसद चल गई।
उधार लिए गए एख पैसे से उत्तम की माँ बाजार में क्या खरीदेंगी? रंग लेकर वह जल्दी से वापस चली गई।
वह हमेशा चिंतित रहती थी कि उसका रोता हुआ बालक कब एक दिन हंसने लगेगा। जैसे ही वह घर पहुंची, उसने धीरे से उत्तम की आंखों में जो रंग डाल दिया। उसे छोड़ दिया।
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लेकिन दो-तीन दिनों के बाद भी बालक अपनी आँखें नहीं खोली। और उसने बालक की पलकें उठाईं और देखते ही वह फूट-फूट कर रोने लगी। उत्तम ने अपनी काली आईरिस खो दी थी। और वहाँ बडा घाव बन गया था।।
तीन-चार महीने बाद, उत्तम की माँ की पागलपन से मृत्यु हो गई।
"भूत के असर से वह पागल हो गई थी," लोग कहते थे। उस समय मैं भी लोगों की बातों पर विश्वास करता था।
अब लगता है कि उस नन्हें बालक की आंख अज्ञानता से खोने कारण माँ पागल हो गई हो?
और... मैं इतना डर गया था जैसे सांप को मारने के बाद जो लग रहे डर जैसा! और जैसे आसमान मुझ पर गिर रहा हो।
बारिश के मौसम की शुरुआत में तूफान आते थे। टांडा में कई लोगों की झोपड़ियां उड़ जाती थी। दो-चार झोपड़ियां गिर जाती थी।
झोंपड़ियों के गिरने की आवाज भयानक रहता था। मेरी घबराहट की कोई सीमा नहीं रहती थी।तब मैं डर के मारे या-माँ', चाची, दादी और फिर 'बा' को लिपट जाता था। फिर भी किसी को लिपटने से मन का डर कम नहीं होता था। और उस समय ..
"अच्छे दिना, शांत हो जाओ!" "एक बार जब पृथ्वी पर सभी लोग मर गए।"
"तो दादाजी और हम कैसे जीवित रहे?"
मैं अपने दादाजी से पूछता था,
"यही तो मैं कह रहा हूं।" "दादा जी ऐसे ही किस्से सुनाते थे," क्या हुआ, एक बार भगवान का घर गिर गया। "
"वे कहाँ के?" मैंने पूछा।
"कहाँ का मतलब आकाश में का.. अरे, आकाश ही गिर गया।
"पिताजी! अरे भगवान! मेरा मतलब है, आकाश भी गिरता है।" मै मन ही मन में डर जाता था। हालाँकि दादाजी कहानी सुनाते रहे।
तो आकाश गिर गया, हर तरफ हाहाकार मच गया। फिर सब मर गए। "
एक था कोल्हा और एक थी कोल्हीन। वे दोनों बहुत चतुर थे। वे पक्षियों की भाषा जानते थे। आदमी के बारे में क्या?षतो उन्होंने देवताओं के पक्ष की जोड़ी की कहानी सुनी
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और उन्हें समझ में आया कि आकाश गिरने वाला है। उन्होंने चाल चली। और एक गर्भवती महिला की बेटी और उसके दो-तीन साल के बेटे को उठाकर वहाँ से फरार हो गये।
फिर क्या.. उन्होंने भाई-बहनों को चींटीयां के घोंसले में छिपा दिया क्योंकि उन्हे पता था की आसमान गिरने वाला है। अगर कोई आदमी चींटी के बिल में छिप जाए या उस पर आसमान या कोई राक्षस गिर जाए, तो उसे कुछ नहीं होता।
राक्षस आकाश से भी बड़ा होता है दादाजी?
" यदि नहीं तो क्या छोटा होता है? राक्षस के एक हाथ का पंजा आकाश इतना बड़ा होता है। सिर्फ पंजा.."
"मैं डर से कांपता रहता था। लोमड़ियों द्वारा ले गये बहन-भाई की शादि शंकर पार्वती लगाते थे। लेकिन मैं उस शादी में अपने पसंदीदा पूरन पोली भोजन के लिए शामिल नहीं हुआ करता था। उस बहन-भाई से पैदा बच्चों के नामकरण संस्कार के बारे में मैंने कभी नहीं सुना। पृथ्वी पर सभी लोग उन भाई बहन के कारण हैं। मेरे दादाजी जो गणित सुनाते थे, वह मेरे गाँव तक नहीं पहुँचा।
कहने का मतलब, समाजवाद की तरह जो अभी तक हमारे देश में नहीं पहुंचा है।
मेरे दादाजी कोई कहानी सुनाते थे तो मुझे उद्योग मिल जाता। छिपाने के लिए चींटी के बिल को जल्दी से कैसे खोजें? आसमान गिरने लगा तो छिपने के लिए चींटी के बिल को जल्दी से कैसे खोजें? ढूंढकर रखना चाहिए।
मै अपने अधिकांश दिन चींटीयो के बील की खोज में बिताता था। जब खेतिहर, नोकर खेत में जाने की तैयार में रहते थे तो मेरा रोना धोना, चीकना और विलाप शुरु हो जाता था। उनके साथ आने के लिए मैं जिक्र करता था। और मैं बिना किसी को बताये चींटी का घोंसला ढूंढता रहता था। लेकिन हाँ.... सबको कैसे पता चलेगा? क्या भीड़ नहीं होगी ? चलो अब ढूंढते हो बिल में!
मुझे चींटीया के बहुत सारे बिल मिल जाते थे। लेकिन, मुझे एक भी बिल नहीं मिली सका जिसमें मैं खुद को मैं छिपा सकूं।
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